फिल्में: समाज का आईना या मनोरंजन का कचरा?
कहा जाता है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं। वास्तव में सिनेमा और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज जो देखना चाहता है, वही फिल्मकार बनाता है। लेकिन अफसोस कि आज का बड़ा दर्शक वर्ग अक्सर उन्हीं फिल्मों को चुनता है जिनमें हिंसा, अव्यावहारिक फाइट सीन, फूहड़ कॉमेडी या अश्लीलता हो। यहाँ तक कि गैंगस्टर कल्चर और अपराध को भी महिमामंडित किया जाता है।
नया ट्रेंड तो और खतरनाक है — सांप्रदायिक आधार पर झूठा-सच्चा इतिहास तोड़-मरोड़कर परोसा जा रहा है। सवाल ये है कि ऐसी फिल्मों में कहानी, अभिनय और मर्म कहाँ खो गया?
जब कोई फिल्म एक सशक्त कहानी, दमदार अभिनय और समाज को जागरूक करने वाला संदेश लेकर आती है तो वही दर्शक वर्ग उसे उतना समर्थन नहीं देता। आमिर खान की ताजा फिल्म “सितारे ज़मीन पर” इसका उदाहरण है। शानदार स्क्रिप्ट, संवेदनशील एक्टिंग और सामाजिक संदेश होते हुए भी यह फिल्म ब्लॉकबस्टर बनने से चूक गई। लागत से तीन गुना कमाई करने के बावजूद ये फिल्म इससे कहीं ज़्यादा डिजर्व करती थी।
वक़्त की कसौटी पर खरी फिल्में जो हिट नहीं हो सकीं
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। सत्यजीत रे की पथेर पांचाली, श्याम बेनेगल की मंथन, अंकुर, निशांत, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, ओम पुरी, इरफान खान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी — इन कलाकारों की अद्भुत फ़िल्में भी अक्सर कॉमर्शियल हिट नहीं हो सकीं। मसान, तितली, द लंचबॉक्स, तलवार और October जैसी फिल्में भी कहानी और अभिनय में दमदार थीं पर दर्शक कम जुटे।
मीडिया हाउस और समीक्षक: कला बनाम कारोबार
आजकल हर चीज़ बिजनेस से जुड़ गई है — उसमें कला और मर्म जैसी चीजें भी शामिल हैं। बड़े मीडिया हाउस, न्यूज़ पेपर आदि को प्रमोशन के लिए विज्ञापन या अन्य रूप में पैसा मिलता है। यही वजह है कि वो एक कमजोर और कचरा फिल्म को भी इस तरह पेश करते हैं मानो उससे बड़ी कोई फिल्म बनी ही नहीं हो। और छोटी बजट की अच्छी कहानी और अभिनय वाली फिल्मों को प्रमोट करने से बचते हैं।
अब रहा सवाल एनालिस्ट्स का — उन पर biased होने तक के इल्ज़ाम लगते हैं। ऐसी भी मिसालें हैं कि जिन फिल्मों को इन्होंने नकारा, वही बाद में ब्लॉकबस्टर हुईं। और अब तो अनरियलिस्टिक एनालिस्ट्स भी पैदा हो गए हैं जिन्हें अनुभव के नाम पर कुछ नहीं आता, पर बड़ी-बड़ी बातें ज़रूर करते हैं।
सिनेमा: मनोरंजन से आगे, बदलाव का माध्यम
हमें याद रखना होगा कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं हैं। ये सामाजिक चेतना का माध्यम भी हैं। दर्शकों को अपनी समझ के स्तर को ऊँचा उठाना होगा, तभी अच्छी कहानियाँ और सशक्त अभिनय सही मायने में सराहे जाएंगे।
वरना सिर्फ पैसा, प्रमोशन और झूठे समीक्षकों के ज़रिए कचरा फिल्में ही बिकेंगी और समाज भी उसी कचरे को पचा लेगा।
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लेखक: samachar24x7.online
बहुत सटीक और तथ्यपरक विश्लेषण। साधुवाद।